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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


शिकार मुंशी प्रेम चंद


यों झल्लाते हुए कुँवर साहब वसुधा के पास गये और आहिस्ता से पुकारा। जब कोई जवाब न मिला तो उन्होंने धीरे से उसके माथे पर हाथ रखा। सिर गर्म तवा हो रहा था। उस ताप ने मानो उनकी सारी क्रोध-ज्वाला को खींच लिया। लपककर बंगले में आये, सोये हुए आदमियों को जगाया,पलंग बिछवाया, अचेत वसुधा को गोद में उठाकर कमरे में लाये और पलंग पर लिटा दिया। फिर उसके सिरहाने खड़े होकर उसे व्यथित नेत्रों से देखने
लगे। उस धुल से भरे मुखमंडल और बिखरे हुए रज-रंजित केशों में आज उन्होंने आग्रहमय प्रेम की झलक देखी। अब तक उन्होंने वसुधा को विलासिनी के रूप में देखा था, जिसे उनके प्रेम की परवाह न थी, जो अपने बनाव-सिंगार ही में मगन थी, आज धूल के पौडर और पोमेड में वह उसके
नारीत्व का दर्शन कर रहे थे। उसमें कितना आग्रह था, कितनी लालसा थी ! अपनी उड़ान के आनन्द में डूबी हुई; अब वह पिंजरे के द्वार पर आकर पंखफड़फड़ा रही थी। पिंजरे का द्वार खुलकर क्या उसका स्वागत न करेगा ? रसोइये ने पूछा, क्या सरकार अकेले आयी हैं ? कुँवर साहब ने कोमल कण्ठ से कहा, हाँ जी, और क्या। इतने आदमी हैं, किसी को साथ न लिया। आराम से रेलगाड़ी से आ सकती थीं। यहाँ से मोटर भेज दी जाती। मन ही तो है। कितने जोर का बुखार है कि हाथ नहीं रखा जाता। जरा-सा पानी गर्म करो और देखो, कुछ खाने को बना लो। रसोइये ने सोचा, ठकुर-सोहाती की सौ कोस की दौड़ बहुत होती है सरकार ! सारा दिन बैठे-बैठे बीत गया। कुँवर साहब ने वसुधा के सिर के नीचे तकिया सीधा करके कहा, 'कचूमर तो हम लोगों का निकल जाता है। दो दिन तक कमर नहीं सीधी होती फिर इनकी क्या बात है। ऐसी बेहूदा सड़क दुनिया में न होगी।'
यह कहते हुए उन्होंने एक शीशी से तेल निकाला और वसुधा के सिर में मलने लगे। वसुधा का ज्वर इक्कीस दिन तक न उतरा। घर के डाक्टर आये। दोनोंबालक, मुनिया, नौकर-चाकर, सभी आ गये। जंगल में मंगल हो गया। वसुधा खाट पर पड़ी-पड़ी कुँवर साहब की सुश्रुषाओं में अलौकिक आनन्द और सन्तोष का अनुभव किया करती। वह दोपहर दिन चढ़े तक सोने के आदी थे, कितने सबेरे उठते, उसके पथ्य और आराम की जरा-जरा सी बातों का कितना खयाल रखते। जरा देर के लिए स्नान और भोजन करते
जाते, फिर आकर बैठ जाते। एक तपस्या-सी कर रहे थे। उसका स्वास्थ्य बिगड़ता जाता था, चेहरे पर स्वास्थ्य की लाली न थी। कुछ व्यस्त से रहते
थे। एक दिन वसुधा ने कहा, तुम आजकल शिकार खेलने क्यों नहीं जाते ? मैं तो शिकार खेलने ही आयी थी, मगर न जाने किस बुरी साइत
से चली कि तुम्हें इतनी तपस्या करनी पड़ गयी। अब मैं बिलकुल अच्छी हूँ। जरा आईने में अपनी सूरत तो देखो। कुँवर साहब को इतने दिनों शिकार का कभी ध्यान ही न आया था। इसकी चर्चा ही न होती थी। शिकारियों का आना-जाना, मिलना-जुलना बन्द था। एक बार साथ के एक शिकारी ने किसी शेर का जिक्र किया था। कुँवर साहब ने उसकी ओर कुछ ऐसी कड़वी आँखो से देखा कि वह सूख-सा गया। वसुधा के पास बैठने, उससे कुछ बातें करके उसका मन बहलाने, दवा और पथ्य बनाने में ही उन्हें आनन्द मिलता था। उनका भोग-विलास जीवन के इस कठोर व्रत में जैसे बुझ गया। वसुधा की एक हथेली पर अँगुलियों सेरेखा खींचने में मग्न थे। शिकार की बात किसी और के मुँह से सुनी होती, तो फिर उसी आग्नेय नेत्रों से देखते। वसुधा के मुँह से यह चर्चा सुनकर उन्हें दु:ख हुआ। वह उन्हें इतना शिकार का आसक्त समझती है ! अमर्ष भरे स्वर में बोले हाँ, शिकार खेलने का इससे अच्छा और कौन अवसर मिलेगा !
वसुधा ने आग्रह किया मैं तो अब अच्छी हूँ, सच ! देखो (आईने की ओर दिखाकर) मेरे चेहरे पर वह पीलापन नहीं रहा। तुम अलबत्ता बीमार
से हो जाते हो। जरा मन बहल जायगा। बीमार के पास बैठने से आदमी सचमुच बीमार हो जाता है। वसुधा ने साधारण-सी बात कही थी; पर कुँवर साहब के ह्रदय पर वह चिनगारी के समान लगी। इधर वह अपने शिकार के खब्त पर कई बार पछता चुके थे। अगर वह शिकार के पीछे यों न पड़ते, तो वसुधा यहाँ क्यों आती और क्यों बीमार पड़ती। उन्हें मन-ही-मन इसका बड़ा दु:ख था। इस वक्त कुछ न बोले। शायद कुछ बोला ही न गया। फिर वसुधा की हथेली पर रेखाएँ बनाने लगे। वसुधा ने उसी सरल भाव से कहा, अबकी तुमने क्या-क्या तोहफे जमा किये, जरा मँगाओ, देखूँ। उनमें से जो सबसे अच्छा होगा, उसे मैं ले लूँगी। अबकी मैं भी तुम्हारे साथ शिकार खेलने चलूँगी। बोलो, मुझे ले चलोगे न ? मैं मानूँगी नहीं। बहाने मत करने लगना।

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